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स्ती॒र्णं ब॒र्हिरुप॑ नो याहि वी॒तये॑ स॒हस्रे॑ण नि॒युता॑ नियुत्वते श॒तिनी॑भिर्नियुत्वते। तुभ्यं॒ हि पू॒र्वपी॑तये दे॒वा दे॒वाय॑ येमि॒रे। प्र ते॑ सु॒तासो॒ मधु॑मन्तो अस्थिर॒न्मदा॑य॒ क्रत्वे॑ अस्थिरन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stīrṇam barhir upa no yāhi vītaye sahasreṇa niyutā niyutvate śatinībhir niyutvate | tubhyaṁ hi pūrvapītaye devā devāya yemire | pra te sutāso madhumanto asthiran madāya kratve asthiran ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्ती॒र्णम्। ब॒र्हिः। उप॑। नः॒। या॒हि॒। वी॒तये॑। स॒हस्रे॑ण। नि॒ऽयुता॑। नि॒यु॒त्व॒ते॒। श॒तिनी॑भिः। नि॒यु॒त्व॒ते॒। तुभ्य॑म्। हि। पू॒र्वऽपी॑तये। दे॒वाः। दे॒वाय॑। ये॒मि॒रे। प्र। ते॒। सु॒तासः॑। मधु॑ऽमन्तः। अ॒स्थि॒र॒न्। मदा॑य। क्रत्वे॑। अ॒स्थि॒र॒न् ॥ १.१३५.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:135» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव ऋचावाले एकसौ पैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में कौन किनके किससे किसको प्राप्त हों, इस विषय को कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! जिस (देवाय) दिव्यगुण के लिये (तुभ्यम्) (हि) आपको ही (पूर्वपीतये) प्रथम रस आदि पीने को (देवाः) विद्वान् जन (येमिरे) नियम करें उन (ते) आपके (मदाय) आनन्द और (क्रत्वे) उत्तम बुद्धि के लिये (मधुमन्तः) प्रशंसित मधुरगुणयुक्त (सुतासः) उत्पन्न किये हुए पदार्थ (प्रास्थिरन्) अच्छे प्रकार स्थिर हों और सुखरूप (अस्थिरन्) स्थिर हों वैसे सो आप (नः) हमारे (स्तीर्णम्) ढँपे हुए (बर्हिः) उत्तम विशाल घर को (वीतये) सुख पाने के लिये (उप, याहि) पास पहुँचो (नियुत्वते) जिसके बहुत घोड़े विद्यमान उसके लिये (सहस्रेण) हजारों (नियुता) निश्चित व्यवहार से पास पहुँचो और (शतिनीभिः) जिनमें सैकड़ों वीर विद्यमान उन सेनाओं के साथ (नियुत्वते) बहुत बल से मिले हुए के लिये अर्थात् अत्यन्त बलवान् के लिये पास पहुँचो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - विद्या और धर्म को जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों का बुलाना सब कभी करें। उनकी सेवा और सङ्ग से विशेष ज्ञान की उन्नति कर नित्य आनन्दयुक्त हों ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के केषां केन किं प्राप्नुयुरित्याह ।

अन्वय:

हे विद्वन्यस्मै देवाय तुभ्यं हि पूर्वपीतये देवा येमिरे यस्य ते तव मदाय क्रत्वे मधुमन्तः सुतासः प्राऽस्थिरन् भद्राऽस्थिरन् स त्वं नः स्तीर्णं बर्हिर्वीतय उप याहि नियुत्वते सहस्रेण नियुता उपयाहि शतिनीभिस्सह नियुत्वते उपयाहि ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तीर्णम्) आच्छादितम् (बर्हिः) उत्तमं विशालं गृहम् (उप) सामीप्ये (नः) अस्माकम् (याहि) प्राप्नुहि (वीतये) सुखप्राप्तये (सहस्रेण) असंख्यातेन (नियुता) निश्चितेन (नियुत्वते) नियुतो बहवोऽश्वा विद्यन्ते यस्य तस्मै, (शतिनीभिः) शतानि वहवो वीरा विद्यन्ते यासु सेनासु ताभिः (नियुत्वते) बहुबलमिश्रिताय (तुभ्यम्) (हि) खलु (पूर्वपीतये) पूर्वस्य पानाय (देवाः) विद्वांसः (देवाय) दिव्यगुणाय (येमिरे) यच्छेयुः (प्र) (ते) तव (सुतासः) निष्पादिताः (मधुमन्तः) प्रशस्तमधुरगुणयुक्ताः (अस्थिरन्) स्थिराः स्युः (मदाय) हर्षाय (क्रत्वे) प्रज्ञायै (अस्थिरन्) स्थिरा इवाचरेयुः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - विद्याधर्मजिज्ञासुभिर्मनुष्यैः विदुषामाह्वानं सर्वदा कार्य्यं तेषां सेवासङ्गाभ्या विज्ञानमुन्नीय नित्यमानन्दितव्यम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात माणसांच्या परस्पर वर्तनाबाबत सांगितलेले असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाचे पूर्वसूक्तार्थाबरोबर साम्य आहे हे जाणावे. ॥

भावार्थभाषाः - विद्या व धर्म जिज्ञासू माणसांनी विद्वानांना नेहमी आमंत्रण द्यावे. त्यांच्या संगतीने व त्यांची सेवा करून विशेष ज्ञान वाढवून सदैव आनंदाने राहावे. ॥ १ ॥